% anees01.s isongs output
\stitle{Karabalaa garmii kaa roz-e-ja.ng kii kyo.nkar karuu.N bayaa.N}
\lyrics{Babar Ali Anees}
\singers{Babar Ali Anees}
गर्मी का रोज़-ए-जंग की क्योंकर करूँ बयाँ
डर है के मस्ल-ए-शमा न जलने लगे ज़बाँ
वो लू, के अल्हज़र! वो हरारत, के अलमाँ!
रन की ज़मीं तो सुर्ख़ थी और ज़र्द आस्माँ
आब-ए-ख़ुनक को ख़लक़ तरसती थी ख़ाक पर
गोया हवा से आग बरसती थी ख़ाक पर
वो लू, वो आफ़्ताब की शिद्दत, वो तब-ओ-ताब
काला था रंग धूप से दिन का मिसाल-ए-शब
ख़ुद नहर-ए-अल्क़मा के भी सूखे हुए थे लब
ख़ैमे जो थे हबाबों के तपते थे सब के सब
उड़ती थी ख़ाक, ख़ुश्क था चश्मा हयात का
ख़ौला हुआ था धूप से पानी फ़रात का
झीलों से चारपाए न उठते थे त ब शाम
मस्किं में मछलिओं के समंदर का था मक़ाम
आहू जो काहिले थे तो चीते सियाह्फ़ाम
पथ्थर पिघल के रह गये थे मस्ल-ए-मोम खाम
सुर्ख़ी उड़ी थी फूलों से, सब्ज़ी गयह से
पानी कुएं में उतरा था साये की चाह से
कोसों किसी शजर में न गुल थे न बर्ग-ओ-बार
एक एक नखल जल रहा थासूरत-ए-चिनार
हँसता था कोई गुल न लहकता था सबज़रार
काँटा हुई थीसूख के हर शाख-ए-बार डार
गर्मी ये थी की ज़ीस्त से दिल सब के सर्द थे
पत्ते भी मस्ले-ए-चेहरा-ए-मद्क़ूक़ ज़र्द थे
आब-ए-रवाँ से मूँह न उठाते थे जानवर
जंगल में छिपते फिरते थे ताइर इधर उधर
मर्दम थे सात पर्दों के अंदर अरक़ से तर
ख़स्ख़ाना-ए-मिज़्ह्गाँ से निकलती न थी नज़र
गर चश्म से निकल कर ठहर जाए राह में
पर जाएं लाख आब्लेपा-ए-निगाह में
शेर उठते थे न धूप के मारे कछार से
आहू न मूँह निकलते थे सब्ज़ाज़ार से
आईना महर का था मुक़द्दर ग़ुबार से
गर्दूँ को तप चड़ी थीज़मीं के बुखार से
गर्मी से मुज़्तरिब था ज़माना ज़मीन पर
भुन जाता था जो गिरता था दाना ज़मीन पर
गिर्दाब पर था शोला-ए-जवाला का गुमाँ
अंगारे थे हबाब, तो पानी शरर फ़िशाँ
मूँह से निकल पड़ी थी हर एक मौज्की ज़बाँ
तह पर थे सब निहंग, मगर थी लबों पे जाँ
पानी था आग, गर्मी-ए-रोज़-हिसाब थी
माही जो सीख-ए-मौज तक आई कबाब थी
आईना-ए-फ़लक को न थी ताब-ओ-तब की ताब
छिपने को बर्क़ चाहती थी दामन-ए-सहाब
सब के सिवा था गर्म मिज़ाजों को इज़्तिराब
काफ़ूर-ए-सुबह ढूँधता फिरता था आफ़्ताब
भड़की थी आग गुम्बद-ए-चर्ख-ए-असीर में
बादल छिपे थे सब कुर्रह-ए-ज़म्हरिर में