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\stitle{har shaam jalate jismo.n kaa gaa.Dhaa dhuaa.N hai shahar}
\singers{Aziz Qaisi #2}
हर शाम जलते जिस्मों का गाढ़ा धुआँ है शहर
मर-घट कहाँ है कोई बताओ कहाँ है शहर
फुटपाथ पर जो लाश पड़ी है उसी की है
जिस गाँव को यक़ीं था कि रोज़ी-रसाँ है शहर
मर जाइये तो नाम-ओ-नसब पूछता नहीं
मुर्दों के सिल-सिले में बहुत मेहरबाँ है शहर
रह रह के चीख़ उठते हैं सन्नाटे रात को
जंगल छुपे हुए हैं वहीं पर जहाँ है शहर
भूचाल आते रहते हैं और टूटता नहीं
हम्जैसे मुफ़्लिसों की तरह सख़्त-जाँ है शहर
लटका हुआ त्रेन के डिब्बों में सुबह-ओ-शाम
लगता है अपनी मौत के मूँह में रवाँ है शहर