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\stitle{Khvaab-baseraa}
\singers{Faiz Ahmed Faiz #48}



इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अँधेरा न सवेरा
आँखों के दरीचे में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा
मुम्किन है कोई वहम हो मुम्किन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का एक आख़िरी फेरा
शाख़ों में ख़यालों के घने पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा
इक बैर न इक महर न इक रब्त न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा
माना कि ये सुन-सान घड़ी सख़्त बड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घ.दी है
हिम्मत करो जीने को अभी उम्र पड़ी है