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\stitle{har ek ruuh me.n ek Gam chhupaa lage hai mujhe}
\singers{Jan Nissar Akhtar #9}



हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे है मुझे
ये ज़िंदगी तो कोई बद-दुआ लगे है मुझे

जो आँसू में कभी रात भीग जती है
बहुत क़रीब वो आवाज़-ए-पा लगे है मुझे

मैं सो भी जाऊँ तो मेरी बंद आँखों में
तमाम रात कोई झाँकता लगे है मुझे

मैं जब भी उस के ख़यालों में खो सा जाता हूँ
वो ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे

मैं सोचता था कि लौटूँगा अजनबी की तरह
ये मेरा गाओँ तो पहचाना सा लगे है मुझे

बिखर गया है कुछ इस तरह आदमी का वजूद
हर एक फ़र्द कोई सानेहा लगे है मुझे