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\stitle{fikr hii Thaharii to dil ko fikr-e-Khubaa.N kyo.n na ho}
\singers{Josh Malihabadi}
फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्र-ए-ख़ुबाँ क्यों न हो
ख़ाक होन अहै तो ख़ाक-ए-कू-ए-जानाँ क्यों न हो
ज़ीस्त है जब मुस्तक़िल आवारा गर्दी ही का नाम
अक़्ल वालो फिर तवाफ़-ए-कू-ए-जानाँ क्यों न हो
इक न इक रिफ़'अत के आगे सज्दा लाज़िम है तो फिर
आदमी महव-ए-सजूद-ए-सिर्र-ए-ख़ुबाँ क्यों न हो
इक न इक ज़ुल्मत से जब वाबस्ता रहना है तो "ज़ोश"
ज़िंदगी पर साया-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ क्यों न हो