% prem02.s isongs output
\stitle{kabhii to khul ke baras abr-e-maharabaa.N kii tarah}
\singers{Prem Warbartoni #2}
% Additions by Fayaz Razvi
कभी तो खुल के बरस अब्र-ए-महरबाँ की तरह
मेरा वजूद है जलते हुए मकाँ की तरह
भरी बहार का सीना है ज़ख़्म ज़ख़्म मगर
सबा ने गाये हैं लोरी शफ़ीक़ मन की तरह
वो कौन था जो बरहना बदन चट्टानों से
लिपट गया था कभी बह्र-ए-बेकराँ की तरह
सकूत-ए-दिल तो जज़ीरा है बर्फ़ का लेकिन
तेरा ख़ुलूस है सूरज के सायेबाँ की तरह
मैं इक ख़्वाब सही आप की अमानत हूँ
मुझे सम्भाल के रखियेगा जिस्म-ओ-जाँ की तरह
कभी तो सोच के वो शख़्स किस क़दर था बुलंद
जो बिछ गया तेरे क़द्मों में आस्माँ की तरह
बुला रहा है मुझे फिर किसी बदन का बसंत
गुज़र न जाए ये रुत भी कहीं ख़िज़ाँ की तरह
लहू है निस्फ़ सदी का जिस के आबगीने में
न देख "Pरेम" उसे चश्म-ए-अर्ग़वाँ की तरह