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\stitle{har shammaa bujhii raftaa raftaa har Khvaab luTaa dhiire dhiire}
\singers{Qaiser ul Jafri}



हर शम्मा बुझी रफ़्ता रफ़्ता हर ख़्वाब लुटा धीरे धीरे
शीशा न सही पत्थर भी न था दिल टूट गया धीरे धीरे

बरसों में मरासिम बनते हैं लम्हों में भला क्या टूटेंगे
तू मुझसे बिछड़ना चाहे तो दीवार उठा धीरे धीरे

एहसास हुआ बरबादी का जब सारे घर में धूल उड़ी
आई है हमारे आँगन में पतझड़ की हवा धीरे धीरे

दिल कैसे जला किस वक़्त जला हमको भी पता आख़िर में चला
फैला है धुआँ चुपके चुपके सुलगी है चिता धीरे धीरे

वो हाथ पराए हो भी गए अब दूर का रिश्ता है 'Qऐसेर'
आती है मेरी तंहाई में ख़ुश्बू-ए-हिना धीरे धीरे