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\stitle{ek se sil-sile hai.n sab hijr kii rut bataa ga_ii}
\singers{Pirzada Qasim #4}



एक से सिल-सिले हैं सब हिज्र की रुत बता गई
फिर वही सुबह आयेगी फिर वही शाम आ गई

मेरे लहू में जल उठे उतने ही ताज़ा दम चिराग़
वक़्त की साज़िशी हवा जितने दिये बुझा गई

मैं भी ब-पास-ए-दोस्ताँ अपने ख़िलाफ़ हो गया
अब यही रस्म-ए-दोस्ती मुझको भी रास आ गई

तुंद हवा के जश्न में लोग गये तो थे मगर
तन से कोई क़बा छिनी सर से कोई रिदा गई

दिल-ज़दगाँ के क़ाफ़िले दूर निकल चुके तमाम
उन की तलाश में निगाह अब जो गई तो क्या गई

आख़िर-ए-शब की दास्ताँ और करें भी क्या बयाँ
एक ही आह-ए-सर्द थी सारे दिये बुझा गई